Tuesday, 30 September 2014

हम गुरूजी को क्या दे सकते हैं ?

एक भिखारी दाता को क्या दे सकता है ?
एक जीवन मृत्यु को क्या दे सकता है ?
एक प्यासा कुँए को क्या दे सकता है ?
धरती का एक टुकड़ा आसमान को क्या दे सकता है ?

इस तरह निष्कर्ष यही है की हम गुरूजी को कुछ नहीं दे सकते.

मनुष्य कर्मों से हीन चिरकाल से ही भगवान् के दर पर एक भिखारी है. कभी वोह खुद उठकर चला जाता है, कभी किसी को भेज देता है या फिर कभी भगवान् उसे स्वयं बुलावा भेज देते हैं. उन्हीं की कृपा से हम सजते हैं और इस दुनिया रुपी भवसागर से उत्तम पुरुष बनकर उन तक अपड पाते हैं.

गुरूजी के पास हम अपनी इच्छा से नहीं बल्कि उनकी इच्छा से ही पहुँच पाते हैं. कहते हैं गुरूजी भाव के भूखे हैं”. सुन्दर भावों में बंधकर हम गुरूजी को प्राप्त कर सकते हैं और यह बात भी शत प्रतिशत सही है कि गुरूजी हमारे बुरे वक़्त में हमसे स्वयं जुड़ जाने हेतु हमें सुन्दर अंतर्मन और बेहद स्वच्छ विचार प्रदान करते हैं ताकि हमें सुन्दर भाव प्राप्त हों और वह हमसे जुड़ सकें.

हम स्वयं गुरूजी को कुछ भी दे पाने में असमर्थ हैं. अगर गुरूजी की इच्छा हो तो वह स्वयं हमें अपने से जोड़कर हमसे कुछ भी सेवाके रूप में करवा सकते हैं. सेवा के रूप में शारीरिक, श्रम, उनके बारे में लिखना, सत्संग में बोलना, धनदान, आदि जो हम सोच भी नहीं सकते, गुरूजी उस रूप में हम से सेवा लेकर हमें धन्य कर सकते हैं. कितनी और कितने समय सेवा लेनी है, यह समय भी नियत होता है.

हमारे ही कल्याण के लिए गुरूजी हमारी बुद्धि का भी दान ले सकते हैं. क्योंकि कहते हैं की जहाँ से हमारी बुद्धि की सीमा ख़त्म होती है वहीँ से गुरूजी की दुनिया शुरू होती है. अत: गुरूजी को समझने के लिए बुद्धि कम भाव अधिक काम आते हैं. तो बुद्धिदान में हमारा ही कल्याण है.

अब आप ही बताइए, जब गुरूजी से मिलने के लिए हम, स्वयं गुरूजी के ही भावों का, उन्हें देखने के लिए उन्हीं की दृष्टि का, उनकी दुनिया को समझने के लिए उन्हीं के दृष्टिकोण का, और मंदिर पहुँचने के लिए उन्हीं की इच्छाशक्ति तक का प्रयोग करते हैं तो हम कितने गरीब हैं. 

फिर भी गुरूजी को फूल बहुत पसंद थे.


हम गुरूजी से क्या प्राप्त कर सकते हैं ?

एक शरीर आत्मा से जो भी प्राप्त कर सकता है वह सब हम गुरूजी से प्राप्त कर सकते हैं और बहुत कुछ भी. गुरूजी से हमारे आत्मिक सम्बन्ध हैं और गुरूजी हमारी आत्मा हैं तो क्या गम है.


आध्यात्मिक तौर से और गुरूजी की आज्ञा के अनुरूप भी हमें गुरूजी से मिलने की आज्ञा तभी होती है जब हम किसी ऐसे दौर से गुज़र रहे होते हैं जिसको हम नहीं बल्कि एक दिव्य शक्ति या गुरु ही प्रकाशित कर सकता है. गुरूजी बच्चों, बूढों और बीमारों को आने से पहले ही अपनी कृपा दृष्टी का भास् करा देते थे और उनसे मिलने के लिए मना करते थे. बुद्दी से परिपक्व व्यक्तियों को गुरूजी बुलाते और उन्हें सुना है, निम्बू की तरह निचोड़ देते थे.  यानी गुरूजी उनकी कठिन परीक्षा लेते थे. परीक्षा लेने का तात्पर्य यही था कि गुरूजी उनकी निष्ठा और प्रेम का जायजा लेते और उनके व्यक्तित्व का आकलन करते उनके मुश्किल समय को कटा देते थे.


सांसारिक और दिव्य, कोई भी ऐसी वस्तु नहीं जो गुरूजी से प्राप्य नहीं. परन्तु किसको क्या और कब प्राप्त होगा, गुरूजी के हाथ में है.


बल, बुद्धि, आचरण, लेखनी, मेहर और मुहर सब गुरूजी के हाथों की मैल हैं.

व्याधों से मुक्ति देना गुरूजी से प्राप्त है.
मन की शांती मिलना गुरूजी से प्राप्त है
जीवन की उर्जा हमें गुरूजी से प्राप्त हैं.
खून में रवानी गुरूजी देते हैं.
बुद्धि में विवेक गुरूजी भरते हैं
आंखों की नींद गुरूजी देते हैं
दिव्या सी आभा गुरूजी देते हैं
शारीर के अंगों में थिरकन गुरूजी भरते हैं
पदवी, मान गुरूजी दिलाते हैं.
महल और मकान गुरूजी बनवाते हैं.
हमारे जीवन का उठान गुरूजी करते हैं
दुखों को सुखों में गुरूजी बदलते हैं
हमारी आँखों में ज्योति गुरूजी भरते हैं
कर्मों को जलाकर नवजीवन गुरूजी प्रदान करते हैं.


कितना बताऊँ गुरूजी, मेरी तो शब्दावली भी कम पड़ गयी .... अररे यह शब्दावली भी तो आप ही की है.


आप सब गुरूजी की किताब “Light of Divinity” अंग्रेजी में और “दिव्य आभा” हिंदी में गुरूजी की कृपा से प्राप्त कर सकते हैं और गुरूजी के सत्संग पढ़ सकते हैं.

जय गुरूजी. 



हम गुरूजी से कैसे जुड़ पाते हैं ?

गुरूजी से जुड़ने का एक नायाब तरीका है प्रेम. परन्तु प्रेम भी हमें तभी प्राप्त है जब गुरूजी हमें प्रेम में प्राप्त होते हैं. प्रेम देते-देते अगर प्रेम सोख लें तो फिर नफरत पर,  लगाव के बाद अलगाव पर, निष्ठा के बाद अनिष्ठा  पर, खामोशी के बाद वाचालता पर, स्वछता के बाद गंदगी पर, सुवचनों के बाद कुवचनों पर, आदर के बाद अनादर पर, जुड़ाव के बाद अलगाव पर, भक्ति के बाद विरक्ति पर, कर्मठता के बाद अकर्मठ्ता पर, जीवन के बाद मृत्यु पर, आत्मा के विषादों पर विजय पाना -- अत्यंत कठिन परीक्षा से गुजरना है एक गृहस्थ के लिए. नासमझी के बाद समझ पर भी अगर विजय प्राप्त नहीं कर पाए हम तो हम हर पल मूर्ख बनते रहते हैं. अगर अपने को साधकर अपनी समझ को समझाकर आगे बढ़ पाएं तो साधक कहलायेंगे.


एक ग्रहस्थ के लिए शायद इच्छाओं और बंधनों पर काबू पाना उसकी सबसे बड़ी विजय है. काबू पाने के बाद भक्ति एवं निष्ठा में पठ पाना दूसरी. फिर मन और कर्त्तव्य पर विजय पाना तीसरी. शरीर और इन्द्रियों पर विजय पाना चौथी. आत्मा पर विजय पाना पाँचवी. ‘मैं” पर विजय पाना छठी, अपने को दूसरों के निम्मित सेवा में प्रदान करना सातवीं. मिथ्यायों से निकलना आठवीं. विश्वास रखना नौवीं और गुरूजी की प्राप्ति दसवीं.


जिनके पास इच्छाएँ अधिक होती हैं, वह इच्छाओं से जुड़ते रहते हैं और उनको दैविक शक्तियों से जुड़ने में समय अधिक लगता है.


जिनके पास इच्छाएँ कम होती हैं वोह जल्दी उबर आते हैं.


बहुत कम साधक भक्त होते हैं जिन्हें शायद इस परीक्षा से गुजारना ही नहीं पड़ता. गुरूजी तक पहुँच पाने के लिए हमें अपने सब कर्मों से निवृत होना है.


जब हम किसी अत्यंत निकट प्रियजन से किसी कारणवश जुड़ नहीं पाते हैं और उसके प्रति हमारा कर्म नित्यप्रति है तो गुरूजी हमें अपने से जोड़ कर उस प्राणी तक पहुंचा सकने में समर्थ हैं. यह क्रिया दर्शन, खुशबू, दैविक रूप से किरणों के माध्यम से रचित गुरूजी की असीमित शक्ति के दर्शन कराती है. इस तरह वह हमारे कर्मों के भी भागी बन जाते हैं.  इसलिए ऐसा वह तभी करते हैं जब गति के विरुद्ध कुछ होता है और रिश्ता होते हुए भी बन नहीं पाता, अपयश प्राप्त कराता है और ऐसे रिश्ते बिन रहा भी नहीं जा सकता. यह रिश्ता जबतक हमसे निभ पाए बेहतर, फिर हमें गुरूजी की छत्रछाया से यह रिश्ता प्राप्त होता है. इस ध्येय को प्राप्त करना आसान नहीं है, इसके लिए गुरूजी को हमसे एक रिश्ता बनाना होता है और उस रिश्ते को निभाना भी होता है – ता-उम्र.


एक रिश्ते में बंधकर हमारा गुरूजी के साथ जुड़ाव बढ़ता है और इसी रिश्ते से गुरूजी हमसे वार्तालाप कर पाते हैं. इसे ही हम उनसे जुड़ना भी कहते हैं.  


जैगुरुजी ...






हम गुरूजी तक कैसे पहुँच सकते हैं ?

इस जीवन में मैंने अपने गुरूजी को ही अपने जीवन का ध्येय माना है. परन्तु जीवन में धर्म, पूजा, गुरु, भगवन के अलावा इंसान भी होता है और इस तरह हम एक इंसान की जिंदगी जीने और निभाने के लिए बाध्य हैं.

कहते हैं, भगवान ने हमें इस दुनिया में, इस जन्म में अपने आप को निर्मल एवं साफ़ करने और अंतत: प्रभु में ही समाने का लक्ष्य देकर भेजा है. इसे मुक्ति कहते हैं. यह लक्ष्य प्रभु वंदना से ही साधा जा सकता है. जन्म से ही बंधनों में समकर इंसान, बाल्यकाल से ही अपने परिजनों से बंधता और बंधता, और बंधता - अंततः इच्छाओं का बंधक, नातों का बंधक बनकर समाज में ही बंधकर रह जाता है. इन बंधनों से ऊपर उठकर ही जीने का अर्थ है मुक्ति”. बंधनों से मुक्तिका बोध हमें त्याग से संभव है.

गुरूजी हमारी इच्छाओं को इतना उन्मादित करते हैं और इच्छाओं को समाने के इतने मार्ग दिखा देते हैं कि हम इच्छाओं में फंस कर दिग्भ्रमित हो जाते हैं. फिर इच्छाओं के अथाह समंदर में हम उछाल पर उछाल पाते जाते हैं. वक्त से पहले ही वोह हमारी इच्छाओं को पूरा कर देते हैं और सोचते हैं कि गुरूजी मौज कराते हैं. अनजाने में ही सही हमारी इच्छाएँ और ज़रूरतें हमारे लिए माया का एक अगम्य जाल बुनती हैं जो हमें गुरूजी से बंधे रखते हुए भी बहुत दूर ले जाती हैं. वोह आवाजें जो हम गुरूजी की मानते हैं, हमारी इच्छाओं को परिपूर्ण करने का एक साधन मात्र रह जाती हैं.

एक समय आता है जब गुरु दूर हो जाते हैं और हम अकेले अपनी इच्छाओं में बंधे उद्द्वेलित होते हैं तो प्रश्न आता है कि अब गुरु कहाँ हैं.

इसके उपरान्त वैराग्य एवं विरक्ति उत्पन्न हो भी पाए. मन उफान से दूर गुरूजी से जुड़ भी पाए.

लेकिन इस प्रश्न तक पहुँचने वालों की संख्या बहुत कम है क्योंकि गुरूजी हमें कार्मिक दायित्वों का बोध करा देते हैं या फिर इश्वर का रास्ता, सत्संग का रास्ता, सत्य, बेहतर आचरण, प्रतिबिम्ब, दर्शन इत्यादि ... हम उनकी इच्छाओं में बंधते रहते हैं.

जिनके पास इच्छाएँ अधिक होती हैं, वह इच्छाओं से जुड़ते रहते हैं और उनको दैविक शक्तियों से जुड़ने में समय अधिक लगता है. जिनके पास इच्छाएँ कम होती हैं वोह जल्दी उबर आते हैं. बहुत कम भक्त होते हैं जिन्हें शायद इस परीक्षा से गुजारना ही नहीं पड़ता.

एक ग्रहस्थ के लिए शायद इच्छाओं और बंधनों पर काबू पाना सबसे बड़ी विजय पाना है.

गुरूजी तक पहुँच पाने के लिए हमें अपने सब कर्मों से निवृत होना है.

गुरूजी आपकी स्मृति मात्र से ही मन शांत और तृप्त होता रहे और जीवन की उलझनों से हम उबर सकें.

उज्जवल, उज्जवल निर्मल ... जय गुरूजी




हमारे गुरूजी

किसी भी शक्सियत के बारे में हम इतना ही समझ सकते हैं जितना हमने देखा, सुना या प्रतीत किया है.

गुरूजी के बारे में उनकी नयी संगत को भी उतना ही ज्ञान है जितना उन्होंने हमें कराया है या जो हम उनके बारे में सुन सके हैं.

गुरूजी से मिलने के बाद मुझे यह एह्सास हुआ है की गुरूजी को किसी परिचय कि आवश्यकता नहीं हैं. वह अपना परिचय स्वयं कराते हैं. इसके लिए हमारा कोई भी प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध होता है.

जीवन-मृत्यु के चक्कर से परे उनकी अपनी दुनिया और शक्सियत है जिसे समझने के लिए उनसे मिलने की अनुभूति ही इश्वर की अनुभूति है. शब्दों में तो उनकी व्याख्या संभव ही नहीं है और न ही उचित होगा.

हम किसी धार्मिक स्थल पर अपनी मर्ज़ी से पहुँच सकते हैं परन्तु हम स्वयं बड़े मंदिर और गुरूजी तक कभी नहीं पहुँच सकते. गुरूजी हम तक स्वेच्छा से पहुँच सकते हैं—यह उनकी असीम शक्ति की अनुभूति मात्र है.  

गुरूजी हमारे व्यक्तित्व, प्रेम, विवेक, संबंधों और परिस्थितियों का आकलन बखूबी बल्कि कहना चहिए, हमसे अधिक गहराई से कर सकते हैं—यह उनकी विराट दिव्य द्रिष्टि की शक्ति की पहचान है.

गुरूजी हमें भावों से परिपूर्ण करते और हमारे जीवन की कमियों को पाट कर हमारे जीवन को जीवंत कर सकते हैं—यह उनका हमें सार्थक करने का युद्ध है जो हम लड़ नहीं सकते.

गुरूजी हमारे साथ क्षण-प्रति-क्षण रह पाते हैं, हमारे जीवन की विषम परिस्थतियों में हमारा सम्पूर्ण संरक्षण कर पाते हैं, अर्थात हमारे जीवन के रक्षा कवच बन सकते हैं—यह उनके एक सर्वोत्तम अभिभावक होने की पहचान है.

गुरूजी माया, मोह, वेदना, द्वेष, पलायन से दिग्भ्रमित मानव को अति उत्तम मार्ग का दर्शन करा पाते हैं और हमें हमारे सही गंतव्य स्थल तक पहुंचा देने में समर्थ हैं--वक़्त आने पर स्वयं सारथि बन जाते हैं और हमें उन्नत दिशा की ओर अग्रसर कर पाते हैं – यह उनके सर्वोत्तम गुरु होने की पहचान है.

गुरूजी कल्याण रूप में मेहरें बरसाते हैं, उद्धार करते हैं और हमें बाह्य शक्तियों से, हमारी इन्द्रियों द्वारा जनी इच्छाओं से, मन से वशीभूत हुई गलत मर्जियों के जाल से मुक्त करा पाते हैं. माया को और कौन काट सकते हैं—यह उनके पारब्रह्म होने की पहचान है. 

हमें पहचान देने वाले गुरूजी का व्यक्तित्व हम दुनिया के हर रंग में देख सकते हैं और हम उनका आकलन उसी तरह करते रहते हैं. जब गुरूजी मन्नुखी चोले में थे तब भी वोह खुशबू, ओम एवं कौतुक दिखाते रहते और अपनी संगत को अपनी शक्ति से अवगत कराते रहे—अब भी कराते हैं—सतयुगी भगवान एवं कलयुगी गुरु भी कराते रहे. गुरूजी हमारी आस्था हैं और हमें एक निर्गम द्वार प्रदान करते हैं जिस से हम अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति कर पायें. गुरूजी अपनी शक्ति का परिचय एवं अपने सर्वोत्तम गुरु और पारब्रह्म होने के नाना प्रमाण दे पाते हैं परन्तु क्या हम उन्हें अभिव्यक्त कर पाते हैं? अभिव्यक्ति के लिए जब संसार में प्रमाण की आवश्यकता होती है तब हम गुरूजी के उन चमत्कारों को बताते हैं जो प्रत्यक्ष हैं और गुरु द्वारा हमारे अहम को भी संतुष्ट करें. ऐसे में गुरु कम और सत्संगी ज्यादा महिमा पा जाए तो दोष साफ़ है.

गुरूजी अपनी पहचान उसी इंसान को कराते हैं जिसे वह कराना चाहते हैं, जिस तरह से कराना चाहते हैं—समय एवं स्थान भी नियत होता है. गुरूजी स्वयं प्रश्न हैं और स्वयं ही उस प्रश्न का उत्तर. मैंने महसूस किया हैं की जो काम गुरूजी की आज्ञा में होता है वह हमें सर्वदा सर्वाधिक प्रियता एवं सर्वोत्तम आनंद प्रदान कराता है. 


जय गुरूजी