इस जीवन में मैंने अपने
गुरूजी को ही अपने जीवन का ध्येय माना है. परन्तु जीवन में धर्म,
पूजा,
गुरु,
भगवन के अलावा इंसान भी
होता है और इस तरह हम एक इंसान की जिंदगी जीने और निभाने के लिए बाध्य हैं.
कहते हैं,
भगवान ने हमें इस दुनिया
में, इस
जन्म में अपने आप को निर्मल एवं साफ़ करने और अंतत: प्रभु में ही समाने का लक्ष्य
देकर भेजा है. इसे मुक्ति कहते हैं. यह लक्ष्य प्रभु वंदना से ही साधा जा सकता है.
जन्म से ही बंधनों में समकर इंसान, बाल्यकाल से ही अपने परिजनों से बंधता और बंधता,
और बंधता - अंततः
इच्छाओं का बंधक, नातों का बंधक बनकर समाज में ही बंधकर रह जाता है. इन बंधनों से
ऊपर उठकर ही जीने का अर्थ है “मुक्ति”. बंधनों से “मुक्ति” का बोध हमें त्याग से संभव है.
गुरूजी हमारी इच्छाओं को
इतना उन्मादित करते हैं और इच्छाओं को समाने के इतने मार्ग दिखा देते हैं कि हम
इच्छाओं में फंस कर दिग्भ्रमित हो जाते हैं. फिर इच्छाओं के अथाह समंदर में हम
उछाल पर उछाल पाते जाते हैं. वक्त से पहले ही वोह हमारी इच्छाओं को पूरा कर देते
हैं और सोचते हैं कि गुरूजी मौज कराते हैं. अनजाने में ही सही हमारी इच्छाएँ और
ज़रूरतें हमारे लिए माया का एक अगम्य जाल बुनती हैं जो हमें गुरूजी से बंधे रखते
हुए भी बहुत दूर ले जाती हैं. वोह आवाजें जो हम गुरूजी की मानते हैं,
हमारी इच्छाओं को
परिपूर्ण करने का एक साधन मात्र रह जाती हैं.
एक समय आता है जब गुरु
दूर हो जाते हैं और हम अकेले अपनी इच्छाओं में बंधे उद्द्वेलित होते हैं तो प्रश्न
आता है कि “अब गुरु कहाँ हैं.”
इसके उपरान्त वैराग्य
एवं विरक्ति उत्पन्न हो भी पाए. मन उफान से दूर गुरूजी से जुड़ भी पाए.
लेकिन इस प्रश्न तक
पहुँचने वालों की संख्या बहुत कम है क्योंकि गुरूजी हमें कार्मिक दायित्वों का बोध
करा देते हैं या फिर इश्वर का रास्ता,
सत्संग का रास्ता,
सत्य,
बेहतर आचरण,
प्रतिबिम्ब,
दर्शन इत्यादि ... हम
उनकी इच्छाओं में बंधते रहते हैं.
जिनके पास इच्छाएँ अधिक
होती हैं, वह
इच्छाओं से जुड़ते रहते हैं और उनको दैविक शक्तियों से जुड़ने में समय अधिक लगता है.
जिनके पास इच्छाएँ कम होती हैं वोह जल्दी उबर आते हैं. बहुत कम भक्त होते हैं
जिन्हें शायद इस परीक्षा से गुजारना ही नहीं पड़ता.
एक ग्रहस्थ के लिए शायद
इच्छाओं और बंधनों पर काबू पाना सबसे बड़ी विजय पाना है.
गुरूजी तक पहुँच पाने के
लिए हमें अपने सब कर्मों से निवृत होना है.
गुरूजी आपकी स्मृति
मात्र से ही मन शांत और तृप्त होता रहे और जीवन की उलझनों से हम उबर सकें.
उज्जवल,
उज्जवल निर्मल ... जय
गुरूजी
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