Tuesday, 30 September 2014

हम गुरूजी से कैसे जुड़ पाते हैं ?

गुरूजी से जुड़ने का एक नायाब तरीका है प्रेम. परन्तु प्रेम भी हमें तभी प्राप्त है जब गुरूजी हमें प्रेम में प्राप्त होते हैं. प्रेम देते-देते अगर प्रेम सोख लें तो फिर नफरत पर,  लगाव के बाद अलगाव पर, निष्ठा के बाद अनिष्ठा  पर, खामोशी के बाद वाचालता पर, स्वछता के बाद गंदगी पर, सुवचनों के बाद कुवचनों पर, आदर के बाद अनादर पर, जुड़ाव के बाद अलगाव पर, भक्ति के बाद विरक्ति पर, कर्मठता के बाद अकर्मठ्ता पर, जीवन के बाद मृत्यु पर, आत्मा के विषादों पर विजय पाना -- अत्यंत कठिन परीक्षा से गुजरना है एक गृहस्थ के लिए. नासमझी के बाद समझ पर भी अगर विजय प्राप्त नहीं कर पाए हम तो हम हर पल मूर्ख बनते रहते हैं. अगर अपने को साधकर अपनी समझ को समझाकर आगे बढ़ पाएं तो साधक कहलायेंगे.


एक ग्रहस्थ के लिए शायद इच्छाओं और बंधनों पर काबू पाना उसकी सबसे बड़ी विजय है. काबू पाने के बाद भक्ति एवं निष्ठा में पठ पाना दूसरी. फिर मन और कर्त्तव्य पर विजय पाना तीसरी. शरीर और इन्द्रियों पर विजय पाना चौथी. आत्मा पर विजय पाना पाँचवी. ‘मैं” पर विजय पाना छठी, अपने को दूसरों के निम्मित सेवा में प्रदान करना सातवीं. मिथ्यायों से निकलना आठवीं. विश्वास रखना नौवीं और गुरूजी की प्राप्ति दसवीं.


जिनके पास इच्छाएँ अधिक होती हैं, वह इच्छाओं से जुड़ते रहते हैं और उनको दैविक शक्तियों से जुड़ने में समय अधिक लगता है.


जिनके पास इच्छाएँ कम होती हैं वोह जल्दी उबर आते हैं.


बहुत कम साधक भक्त होते हैं जिन्हें शायद इस परीक्षा से गुजारना ही नहीं पड़ता. गुरूजी तक पहुँच पाने के लिए हमें अपने सब कर्मों से निवृत होना है.


जब हम किसी अत्यंत निकट प्रियजन से किसी कारणवश जुड़ नहीं पाते हैं और उसके प्रति हमारा कर्म नित्यप्रति है तो गुरूजी हमें अपने से जोड़ कर उस प्राणी तक पहुंचा सकने में समर्थ हैं. यह क्रिया दर्शन, खुशबू, दैविक रूप से किरणों के माध्यम से रचित गुरूजी की असीमित शक्ति के दर्शन कराती है. इस तरह वह हमारे कर्मों के भी भागी बन जाते हैं.  इसलिए ऐसा वह तभी करते हैं जब गति के विरुद्ध कुछ होता है और रिश्ता होते हुए भी बन नहीं पाता, अपयश प्राप्त कराता है और ऐसे रिश्ते बिन रहा भी नहीं जा सकता. यह रिश्ता जबतक हमसे निभ पाए बेहतर, फिर हमें गुरूजी की छत्रछाया से यह रिश्ता प्राप्त होता है. इस ध्येय को प्राप्त करना आसान नहीं है, इसके लिए गुरूजी को हमसे एक रिश्ता बनाना होता है और उस रिश्ते को निभाना भी होता है – ता-उम्र.


एक रिश्ते में बंधकर हमारा गुरूजी के साथ जुड़ाव बढ़ता है और इसी रिश्ते से गुरूजी हमसे वार्तालाप कर पाते हैं. इसे ही हम उनसे जुड़ना भी कहते हैं.  


जैगुरुजी ...






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