एक भिखारी दाता को क्या दे सकता है ?
एक जीवन मृत्यु को क्या दे सकता है ?
एक प्यासा कुँए को क्या दे सकता है ?
धरती का एक टुकड़ा आसमान को क्या दे सकता है ?
इस तरह निष्कर्ष यही है की हम गुरूजी को कुछ
नहीं दे सकते.
मनुष्य कर्मों से हीन चिरकाल से ही भगवान् के
दर पर एक भिखारी है. कभी वोह खुद उठकर चला जाता है, कभी किसी को भेज देता है या फिर कभी भगवान्
उसे स्वयं बुलावा भेज देते हैं. उन्हीं की कृपा से हम सजते हैं और इस दुनिया रुपी
भवसागर से उत्तम पुरुष बनकर उन तक अपड पाते हैं.
गुरूजी के पास हम अपनी इच्छा से नहीं बल्कि
उनकी इच्छा से ही पहुँच पाते हैं. कहते हैं “गुरूजी भाव के भूखे हैं”. सुन्दर
भावों में बंधकर हम गुरूजी को प्राप्त कर सकते हैं और यह बात भी शत प्रतिशत सही है
कि गुरूजी हमारे बुरे वक़्त में हमसे स्वयं जुड़ जाने हेतु हमें सुन्दर अंतर्मन और
बेहद स्वच्छ विचार प्रदान करते हैं ताकि हमें सुन्दर भाव प्राप्त हों और वह हमसे
जुड़ सकें.
हम स्वयं गुरूजी को कुछ भी दे पाने में
असमर्थ हैं. अगर गुरूजी की इच्छा हो तो वह स्वयं हमें अपने से जोड़कर हमसे कुछ भी “सेवा” के
रूप में करवा सकते हैं. सेवा के रूप में शारीरिक, श्रम, उनके बारे में लिखना, सत्संग
में बोलना, धनदान, आदि जो हम सोच भी नहीं सकते, गुरूजी उस रूप में हम से सेवा लेकर हमें धन्य
कर सकते हैं. कितनी और कितने समय सेवा लेनी है, यह समय भी नियत होता है.
हमारे ही कल्याण के लिए गुरूजी हमारी बुद्धि
का भी दान ले सकते हैं. क्योंकि कहते हैं की जहाँ से हमारी बुद्धि की सीमा ख़त्म
होती है वहीँ से गुरूजी की दुनिया शुरू होती है. अत: गुरूजी को समझने के लिए
बुद्धि कम भाव अधिक काम आते हैं. तो बुद्धिदान में हमारा ही कल्याण है.
अब आप ही बताइए, जब
गुरूजी से मिलने के लिए हम, स्वयं गुरूजी के ही भावों का, उन्हें देखने के लिए उन्हीं की दृष्टि का, उनकी
दुनिया को समझने के लिए उन्हीं के दृष्टिकोण का, और मंदिर पहुँचने के लिए उन्हीं की
इच्छाशक्ति तक का प्रयोग करते हैं तो हम कितने गरीब हैं.
फिर भी गुरूजी को फूल बहुत पसंद थे.