Friday, 17 August 2012

आत्मा एवं परमात्मा

आत्मा एवं परमात्मा के मिलन हेतु हमारे व्यक्तितव में तरलता, लचक, गुरुजी एवं गुरुजी की कृपा होना अत्यंत आवशयक है क्योंकि उनकी कृपा मात्र से हम एक आम इंसान से शिष्य बन पाते हैं. मोक्ष एवं मुक्ति द्वार प्रशस्त करने हेतु ... शिष्य का गुरु के प्रति अचल विश्वास और एकनिष्ठ प्रेम, गुरुकृपा प्राप्त करने के लिये शिष्य की पात्रता है। हमारे सुन्दर भाव हमें गुरूजी के निकट लाते हैं. यह तभी संभव है जब यह भाव गुरुजी के चरण कमलों के साथ जुड़ने का हो.

हमारे सुन्दर और सच्चे प्रेम के भाव, वह दो तार हैं जो हमारी अभिव्यक्ति को गुरूजी के अंतर्मन से जोड़ते है. यदि कोई गोबर भरा पात्र लेकर किसी के यहाँ दूध लेने जाय तो दूध देने वाला पात्र अशुद्ध होने के कारण उसमें दूध नहीं डाल सकता, उसी प्रकार गुरु भी शिष्य की पात्रता से तुष्ट होकर ही बहुमूल्य कृपा रूपी अनुभूति शिष्य के ह्रदय में उतारते हैं। मानवरूपी लोहा गुरुरूपी पारस के साथ जब अभिन्नता प्राप्त करता है तब उसका जीवन स्वर्ण बन सकता है. अतः शिष्य का गुरु के साथ अभिन्न संबंध होना अनिवार्य है। यह अभिन्न संबंध श्रद्धा, विश्वास एवं प्रेम का संबंध है, जो हर प्रकार से निश्छ्ल, निर्मल और निष्काम हो. वे दयालु बनकर स्वयं साधना कराते हैं एवं शिष्य के भीतर की गंदगी को हटाकर उसे अपनी कृपा के द्वारा सुयोग्य पात्र बना लेते हैं. इसी कारण हमें गुरु पहले प्राप्त करते हैं और परमात्मा स्वत ही प्रकट हो जाते हैं. अब आत्मा एवं परमात्मा का मिलन अभीष्ट है.

इस प्रक्रिया में कृपालु गुरुजी कुम्हार की तरह हमारे अंतर्मन में पैठ कर अपने हाथ का सहारा देकर हमें सही भाव प्रदान करते हैं एवं हमें गढ़ते रहते हैं, संवारते रहते हैं, सजाते रहते हैं और महक प्रद्दान करते रहते हैं. ऐसा गुरूजी के अपने व्यक्तित्व में स्पष्ट सार्थक है. गुरु शिष्य के अन्तर्दोषों को क्रमशः दूर करते रहते हैं. परन्तु यह उसी प्रकार है जैसे पुत्र के फोड़े को चीर फाड़ कर स्वच्छ रखने में माता की कठोरता दिखाई देती है. जैसे माता कठोर नहीं होती, पुत्र के प्रति प्रेम ही उसे उसके भले के लिये ऊपर से कठोर बनाता है, उसी प्रकार गुरु की कृपा ही शिष्य को सुधारने में कठोरता के रूप में दिखाई पड़ती है. इसलिए कहा है,

गुरूजी आपने हमारी दुनिया सजायी और महकाई,
आपके पवित्र, पावन चरणों से कभी ना हो जुदाई.

यह जीवन का सत्य नहीं तो और क्या है की मनुष्य की इच्छाएं उससे हमेशा ही घनिष्ट सम्बन्ध साधे रहती हैं और यह गुरुकृपा नहीं तो और क्या है जो हमें ठोस, तरल एवं कांच बनाती एवं समझाती रहती है. परन्तु आगे का सफ़र मुसाफिर की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है. कंचन बनने के अभिलाषी गुरुरूपी पारसमणि को भी प्राप्त कर सकते है और रास्ता भटक भी सकते हैं.

जब भी हम बंदिता होते हैं तो उड़ान भरना चाहते हैं और स्वछंद होने पर बंधना मुनासिब समझते हैं, एकांत में साथ और भीड़ में एकांत मांगते रहते हैं. हमारे गुरूजी हमारे लिए सांसारिक सुखों एवं ग्रहस्थ आश्रम से मुख मोड़कर, संसार से जुड़े रहते हुए, महासमाधि पश्च्यात भी हमें मोक्ष दिलाते रहते हैं. इससे बड़ा अद्वितय बलिदान इस पृथ्वी पर संभव नहीं. गुरूजी आप मेरे लिए अप्रितम हैं. आपको मेरा शत-शत प्रणाम.

जय गुरूजी
  

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